Thursday, September 4, 2008

भोजन प्रेम का परिपूरक


ओशो ने भोजन और प्रेम को कुछ ऐसे समझाया है!

भोजन सदा प्रेम का परिपूरक है. जो लोग प्रेम नहीँ करते, जिनके जीवन मेँ प्रेम की कमी है, वे ज्यादा खाने लगते हैँ; यह प्रेम-पूर्ति है.

जब बच्चा पैदा होता है तो उसका पहला प्रेम और पहला भोजन एक होता है—माँ. अत: भोजन और प्रेम मेँ गहरा सँबँध है; वास्तव मेँ भोजन पहने आता है और प्रेम बाद मेँ. पहले बच्चा माँ को खाता है, तब धीरे-धीरे उसे बोध होने लगता है कि माँ केवल भोजन नहीँ है; वह उसे प्रेम भी करती है. लेकिन उसके लिये एक विशेष विकास आवश्यक है. पहले दिन बच्चा प्रेम नहीँ समझ सकता. वह भोजन की भाषा समझता है, सभी पशुओँ की आदिम नैसर्गिक भाषा. बच्चा भूख के साथ पैदा होता है; भोजन अभी चाहिये. अभी बहुत दूर तक प्रेम की जरूरत नहीँ है; यह आपातकालीन परिस्थिति नहीँ है. प्रेम के बिना पूरा जीवन जीया जा सकता है, लेकिन भोजन के बिना नहीँ जीया जा सकता—यही तो मुश्किल है.

तो बच्चा भोजन और प्रेम के सँबम्ध को समझने लगता है. और धीरे-धीरे वह यह भी अनुभव करने लगता है कि जब भी माम अधिक प्रेमपूर्ण होगी, वह उसे अलग ढँग से दूध देगी. जब वह प्रेमपूर्ण नहीँ है, क्रोध मेँ है, उदास है तो वह बड़े अनमने से उसे दूध देगी या देगी ही नहीँ. अत: बच्चा जान जाता है कि जब भी माँ प्रेमपूर्ण है, जब भी भोजन उपलब्ध है तो प्रेम उपलब्ध है. जब-जब भोजन उपलब्ध नहीँ है तो बच्चे को लगता है कि प्रेम भी उपलब्ध नहीँ है और इसके विपरीत भी यही सच है. यह उसके अचेतन मेँ है.

कहीँ तुममेँ प्रेमपूर्ण जीवन की कमी है इसलिये तुम अधिक खाने लगते हो—यह उसका परिपूरक है. तुम अपने आपको भोजन से भरते रहते हो और भीतर कोई जगह नहीँ छोड़ते. तो प्रेम का तो सवाल ही नहीँ, क्योँकि भीतर कोई जगह ही नहीँ बची. और भोजन के साथ बात आसान है क्योँकि भोजन मृत है. तुम जितना चाहो उतना खा सकते हो—भोजन तुम्हेँ न नहीँ कह सकता. अगर तुम खाना बँद कर दोगे तो भोजन यह नहीँ कह सकता कि तुम मुझे अपमानित कर रहे हो. भोजन के साथ तुम मालिक रहते हो.

लेकिन प्रेम मेँ तुम मालिक नहीँ रह जाते. तुम्हारे जीवन मेँ कोई दूसरा प्रवेश कर जाता है, तुम्हारे जीवन मेँ निर्भरता प्रवेश कर जाती है. तुम स्वतँत्र नहीँ रह जाते,और यही भय है.

अहँकार स्वतँत्र रहना चाहता है और यह तुम्हेँ प्रेम नहीँ करने देगा. अगर तुम प्रेम करना चाहते हो तो तुम्हेँ अहँकार छोड़ना होगा.

प्रश्न भोजन का नहीँ है; भोजन केवल साँकेतिक है. तो मैँ भोजन के बारे मेँ कुछ नहीँ कहूँगा, भोजन कम करने या ऐसी किसी बात के बारे मेँ कुच्च नहीँ कहूँगा. क्योँकि उससे कुछ भी नहीँ होगा, तुम्हेँ सफलता नहीँ मिलेगी. तुम हजारोँ तरीके अपना सकते हो; लेकिन उससे कुछ नहीँ होगा. बल्कि मैँ कहूँगा, भोजन के बारे मेँ भूल जाएँ और जितना चाहेँ, उतना खाएँ.

प्रेम का जीवन शुरू करेँ, प्रेम करेँ, किसी को खोजेँ जिसे तुम प्रेम कर सको और अचानक तुम पाओगे कि तुम ज्यादा नहीँ खा रहे.

क्या तुमने कभी ध्यान दिया है?—जब तुम प्रसन्न होते हो तो तुम ज्यादा नहीँ खाते. जब तुम उदास होते हो तो तुम ज्यादा खाते हो. लोग सोचते हैँ कि जब तुम प्रसन्न होते हो तो तुम ज्यादा खाते हो, लेकिन यह बिलकुल झूठ है. प्रसन्न व्यक्ति इतना परितुष्ट होता है कि उसके भीतर कोई खालीपन नहीँ होता. अप्रसन्न व्यक्ति अपने अँदर भोजन ठूँसता रहता है.

तो मैँ भोजन की तो बात ही नहीँ छेड़ूँगा... और तुम जैसे हो, वैसे रहो, लेकिन प्रेम के लिये किसी को खोज लो जिसे प्रेम किया जा सके.
http://www.osho.com/Main.cfm?Area=Magazine&Language=Hindi
Copyright © 2008 Osho International Foundation

2 comments:

राजेंद्र माहेश्वरी said...

अहँकार स्वतँत्र रहना चाहता है और यह तुम्हेँ प्रेम नहीँ करने देगा. अगर तुम प्रेम करना चाहते हो तो तुम्हेँ अहँकार छोड़ना होगा.

हम प्यार करना सीखें, हममें, अपने आप में, अपनी आत्मा और जीवन में, परिवार में, समाज में और ईश्वर में, दसों-दिशाओं में प्रेम बिखेरना और उसकी लौटती प्रतिध्वनि का भाव-भरा अमृत पीकर धन्य हो जाना, यही जीवन की सफलता हैं।

रंजन राजन said...

चिट्ठाजगत में आपका स्वागत है।
आपके ब्लाग पर आना अच्छा लगा। सक्रियता बनाए रखें। शुभकामनाएं।