Wednesday, March 18, 2009


नज़र चुरा के रुमाल नाक पे रख के कुछ इस तरह से फूलों के बाग़ से गुजरा
तलाश जिसकी सुबहो शाम करता रहा उसी से बचते बचाते जहांन से गुजरा
खयाल जिसका बसा है मेरे जेहन मैं उसी से हाथ मिला कर भीड़ से गुजरा

Sunday, March 8, 2009

अनियमित ब्लॉग की क्षमा मागंने में शर्म आ रही है फिर भी बेशर्मी से लिख रहा हूँ. कल रात फिल्मफेयर अवार्ड देखना पड़ा. जनता की विशेष मांग कह लीजिये या फिर अपनी मज़बूरी. टीवी के सामने बैठने की कितनी भी कोसिस कर लूं कभी कभी फंस ही जाना पड़ता है. कुछ तो अपना फिल्म प्रेम भी है ही. अभी बीबीसी की dokumentry देखा रह हूँ- प्लानेट अर्थ कमाल है - ऐसा काम पहले हुआ ही नहीं. नशा आ जाता है. ये ५ डीवीडी का सेट है- खरीदना ही चाहिए. बंगला देश से शाहिदुल आलम मुंबई आये थे . उनका फोटोग्राफी पे वर्कशॉप हमने आयोजित किया था. वैसा काम भारत मई कोई नहीं कर रहा है. अपने मित्र सुधारक ओल्वे को उन्होंने ही नेशनल जियोग्राफी का अवार्ड दिलवाया था.